खाली पहाड़, मौन पहाड़, मैं भी मौन!

apna gharसबसे पहले तो मैं हिलाँस.कॉम वालों को बधाई देता हूं, जिनकी मेहनत से आज संस्कृति का प्रचार-प्रसार हो रहा है। वर्तमान में ‘पलायन’ गहरी चिन्ता का विषय बन गया है, इसके लिए जितनी दोषी सरकार है उससे कहीं अधिक उत्तराखंड के प्रवासी दोषी हैं। क्योंकि गांव खण्डहर में बदलते जा रहे हैं। बिखराव बढ़ता जा रहा है रोज ‘पलायन’ की पीड़ा को पहाड़ सहन कर रहा है। मकान की छत कभी भी गिर सकती है, जहां हमने बचपन गुजारा, किलकारियां मारी वहां आज सुनसान है, वीरान है। आखिर इसका जिम्ममेदार कौन है ? केवल और केवल हम, आज पहाड़ में नशा इतना फैल चुका है कि जहां पहले बिना घी, दूध, मक्खन के खाना नहीं खाया जाता था, वहां आज इसकी जगह शराब ने ले ली है। नशे से मुक्ति कैसे मिलेगी?, इस दानव को कैसे नष्ट किया जाए ?, सोचने का विषय है। परंतु क्या इसमें हम प्रवासियों की भूमिका नहीं है ? अन्र्तआत्मा से पूछोगे तो उत्तर मिल जाएगा।

आज जन सुविधा के नाम पर अनेक बातें की जाती हैं परंतु हकीकत यह है कि जब हम कोटद्वार, रामनगर, ऋषिकेश पहुंचते हैं तो एक अजीब नजारा देखने को मिलता है जब बसों की असुविधा का फायदा टैक्सी वाले उठाने लगते हैं और मनमानी करते हुए सवारियों को ऐसे ठोंसतें हैं, जैसे वह इंसान नहीं जानवर हों। अरे भाई साहब ! ये क्या कर रहे हो ? तो जवाब मिलता है कि बच्चे भी पालने हैं। यहां पर दुख होता है कि अपने बच्चों की खातिर दूसरे के बच्चों की जान जोखिम में डालना कैसी पारिवारिक जिम्मेदारी है। निसंदेह ! इस पर भी प्रवासी बन्धुओं को सोचना चाहिए, क्योंकि अक्सर देखा गया है कि जो बच्चा मैदान से पहाड़ एक बार चला गया, दोबारा लाख कोशिशों के बाद भी जाने को तैयार नहीं होता आखिर क्यों ? संस्कृति पर आज अत्याचार हो रहा है, पर पहाड़ मौन हैं! बेचारा पहाड़ क्या बोलेगा बोलने वाले तो वहां से ‘पलाययन’ कर गए।
रहे बूढ़े मां-बाप वो तो बस मन ही मन अपने को कोस रहे हैं कि क्या तू यही दिन देखने के लिए जीवित है, आज अपनी सेवा-सौंली की जगह हाय-हाय, बाय-बाय, टाटा ने ले लिया है। पाश्चात्य संस्कृति ने उत्तराखंड को जकड़ लिया है। शादी समारोह में शाकाहारी भोजन की जगह अब ‘चखण्या’ (मीट-मुर्गा) ने ले लिया, जहां ये ‘चखण्या’ अर शीशी (रम) नहीं है, समझो वो शादी हुई ही नहीं। पारंपारिक बाध्य यंत्रों (ढोल, दमाऊं, और मसकबाज) की जगह बैंड बाजा वाले संस्कृति का बैंड बजा रहे हैं। मांगलिक मुहर्त के अवसर पर मांगल गीतों की जगह शीला-फीला फेबिकोल से चिपकने लग गए हैं, पुरानी बैठकें (चांदनी-कनाथ) की जगह टैंट ने भी अपना सिक्का जमा लिया है। गांव के सर्यूलों की जगह हलवाई लगाए जा रहे हैं, ऐसा लगता है जैसे हम शहरों में आए हों, सारे रीति-रिवाज खत्म होते जा रहे हैं, पहाड़ी संस्कृति का अस्तित्व खतरे में आ गया है, ऐसे समय में हिलांस मंच पटियाला प्रवास में अपनी संस्कृति को बचाने हेतु प्रयारत है जोकि साधूवाद का असली हकदार है। सभी उत्तराखंडी प्रवासी संगठनों से विनम्र निवदेन है कि यदि हम वास्तव में अपनी सांस्कृतिक धरोहर को बचाना चाहते हैं, तो आओ इसके लिए मिलकर जमीनी प्रयास किया जाए। हवा में बातें न कर कुछ करने का समय है, उस मां-माटी के लिए जिसमें हमारा बचपन सवांरा है।
श्री वीरेंद्र पटवाल
प्रधान
पौड़ी गढ़वाल सभा
पटियाला

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